राजस्थान/पुष्कर। परम पूज्य संंत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा कि गणपति-देव एकदन्त और चतुर्बाहू हैं। वह अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, दन्त और वरद मुद्रा धारण करते हैं। उनके ध्वजा में मूषक का चिन्ह है। वे रक्त वर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा रक्त वस्त्र धारी है। रक्त चंदन के द्वारा उनके अंग अनुलिप्त हैं। वे रक्त वर्ण के पुष्पों के द्वारा सुपूजित हैं। भक्तों की कामना पूर्ण करने वाले, ज्योतिर्मय, जगत के कारण, अच्युत तथा प्रकृति और पुरूष से परे विद्यमान वे पुरुषोत्तम सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए।
भगवान श्री गणेश जी का जो इस प्रकार ध्यान नित्य करता है। वह योगियों में श्रेष्ठ है। भगवान वेद कहते हैं कि गणपति को नमस्कार है। आप ही प्रत्यक्ष तत्व हो। आप ही केवल कर्ता, आप ही केवल धारण करता और आप ही केवल संघार कर्ता हो। आप ही केवल यह समस्त विश्वरूप ब्रह्म हो और आप ही साक्षात् आत्मा हो । इतिहास-पुराण-निर्माता महर्षि व्यास जी श्री गणेश जी के विशेष कृतज्ञ एवं आभारी हैं। क्योंकि जब उन्हें लक्षश्लोकात्मक महाभारत नाम की शतसाहस्री संहिता का निर्माण किया, तब चिंता हुई कि इस महान ग्रंथ का प्रचार बिना लिखे शक्य नहीं है।
कुशल लेखक कोई मिल नहीं रहा है। स्मरण करते ही ब्रह्मदेव उपस्थित हुए। सर्वान्तर्यामी ब्रह्माने व्यास जी का भाव जान लिया था। उन्होंने व्यास जी को आदेश दिया कि- इस कार्य के लिए आप विघ्नेश्वर गणेश जी का स्मरण करें, वे ही इस कार्य के लिए उपयुक्त होंगे। श्री व्यास जी के ध्यान करते ही श्री गणपति आए और उनका मनोरथ पूरा किया। श्री गणेश जी का वाहन मूषक रूप से दर्शाया गया है।
सुबुद्धि ही कुतर्क बुद्धि को दबाने में समर्थ है। जिस प्रकार चूहा वस्तु के गुणों का ध्यान न रखकर उसे काट कर नष्ट कर देता है। उसी प्रकार कुतर्क बुद्धि भी भाव के सारासार को न देखती हुई उसे खंडित कर व्यर्थ बना देती है। इसलिए सुबुद्धि रूप गणेश का वाहन कुतर्क रूप चूहा बनाया गया है। जिस महापुरूष में सुबुद्धि जितनी विशाल होती है। उसकी अपेक्षा कुतर्क बुद्धि स्वल्प होती है। ॠतं वच्मि।सत्यं वच्मि। यथार्थ कहता हूं , सत्य कहता हूं।