मीरजापुर। ड्रैगन फ्रूट की खेती किसानों की सूझबूझ की कहानी को बयां करती नजर आ रही है। सूझबूझ और तकनीकी का इस्तेमाल किसानों की किस्मत गढ़ रहा है और उनके लिए कमाई का बेहतर जरिया भी साबित हो रहा है। कई गंभीर बीमारियों के लिए रामबाण साबित होने वाले ड्रैगन फ्रूट की दो साल पहले यानी 2018 से शुरू हुई खेती ने किसानों की उन्नति के दरवाजे खोल दिए है। इसकी खेप वाराणसी सहित पूर्वांचल के कई जिलों में पहुंचने लगी है। उद्यान विभाग के सहयोग से कुछ किसानों ने खेती शुरू की तो जिलेभर के करीब 22 किसान आगे आएं। उद्यान विभाग के सहयोग से तकनीकी का बखूबी इस्तेमाल कर किसान एक मिसाल बनकर उभरे हैं। थाईलैंड, चीन व मलेशिया में होने वाले ड्रैगन फ्रूट की खेती के लिए उद्यान विभाग ने वियतनाम से ड्रैगन फ्रूट के पौधे मंगवाए। शुरुआत में बहुत कम लोगों ने रुचि दिखाई, लेकिन सालभर में बेहतर लाभ को देखते हुए किसानों का रुझान बढ़ा। 18 महीने में इसके पौधे फल देने के लिए तैयार हो गए थे। किसान कई बार फल निकाल चुके हैं। सौ से चार सौ ग्राम वजन तक के लाल रंग के होने वाले फल को किसान उद्यान विभाग के जरिए जल्द ही दूसरे प्रांतों में भी भेजेंगे। इसकी डिमांड वाराणसी, मुंबई आदि शहरों में भी बढ़ गई है। जिले की मिट्टी में ड्रैगन फ्रूट की खेती सफल है। इसकी खेती करने के वाले किसान नुआंव निवासी रामजी दुबे ने बताया कि पहले साल फल आया तो अधिकतर टेस्ट करने में ही चला गया, लेकिन कुछ फल उन्होंने सौ रुपये प्रति फल के हिसाब से बेचें। राजगढ़ के राजेश मौर्या, सहन मौर्या, राधेश्याम सिंह, सक्तेशगढ़ के अजय कुमार सिंह, नुआंव के रामजी दुबे ने बताया कि ड्रैगन फ्रूट की खेती उनके लिए फायदे का सौदा साबित हुई है। व्यापारी अब उनके फार्म पर आकर यहीं से माल लेकर जाने लगे हैं। इससे मंडियों के चक्कर लगाने से छुटकारा मिला है। उनकी आय भी दोगुनी हो गई है। कहा कि ड्रेगन फ्रूट की खेती से काफी फायदा मिल रहा है। अन्य किसान भी इसमें आगे बढ़ें और उचित लाभ कमाएं। ड्रैगन फ्रूट का पौधा काफी नाजुक होता है, इसलिए पिलर के सहारे खड़ा करना होता है और ऊपर से हल्का पानी देना होता है। एक पिलर में चार पौधे लगा सकते हैं और 18 महीने में उसमें 50 से 120 फल आ जाते हैं। उद्यान अधिकारी मेवाराम ने बताया कि एक बार लगा पौधा कई साल चलता है। इससे किसानों को अच्छी आय होती है। इसमें पिलर बनवाने का खर्च ही महंगा है। बाकी 50 रुपये का पौधा और गोबर की खाद लगती है। पानी की ज्यादा जरूरत नहीं होती। इसमें बीमारी भी नहीं लगती है। कांटे होने की वजह से इसे कोई जानवर भी नहीं खाता।