एस्ट्रोलॉजी। श्राद्ध पूर्णिमा पर पिशाचमोचन कुंड से लेकर गंगा के तट तक श्राद्ध करने वाले उमड़ेंगे। पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मुक्ति दिलाने वाले पिशाचमोचन कुंड पर कोरोना संक्रमण काल में दूसरे साल पितृपक्ष में सन्नाटा नहीं रहेगा। तीर्थ पुरोहित समाज केचेहरे भी खिले हुए हैं। वहीं गंगा घाटों पर भी तीर्थ पुरोहितों ने अपनी तैयारियां पूरी कर ली हैं। श्राद्ध के लिए आने वालों का सिलसिला देर रात से शुरू हो जाएगा। गया तीर्थ की मान्यता वाले पिशाचमोचन पर आज से यजमान और पुरोहितों का रेला उमड़ेगा। रविवार को तीर्थ पुरोहित समाज की बैठक में भी कोविड प्रोटोकॉल के अनुसार पितृपक्ष के सभी आयोजनों पर सहमति बनी। सुबह से ही पिशाचमोचन कुंड और गंगा के तट पर पितृपक्ष की तैयारियां शुरू हो गई थीं। तीर्थ पुरोहित राजेश मिश्रा ने बताया कि ऐसी मान्यता है कि पिशाचमोचन कुंड पर त्रिपिंडी श्राद्ध करने से पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद व्याधियों से मुक्ति मिल जाती है। इसीलिए पितृ पक्ष के दिनों में पिशाच मोचन कुंड पर लोगों की भारी भीड़ उमड़ती है। श्राद्ध की इस विधि और पिशाच मोचन तीर्थस्थली का वर्णन गरुण पुराण में भी मिलता है। पं. वेदमूर्ति शास्त्री ने बताया कि काशी खंड की मान्यता के अनुसार पिशाच मोचन मोक्ष तीर्थ स्थल की उत्पत्ति गंगा के धरती पर आने से भी पहले से है। बैठाई जाती हैं अतृप्त आत्माएं कुंड के पास एक पीपल का पेड़ है। इसको लेकर मान्यता है कि इस पर अतृप्त आत्माओं को बैठाया जाता है। इसके लिए पेड़ पर सिक्का रखवाया जाता है ताकि पितरों का सभी उधार चुकता हो जाए और पितर सभी बाधाओं से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकें और यजमान भी पितृ ऋण से मुक्ति पा सकें। प्रधान तीर्थ पुरोहित के अनुसार पितरों के लिए 15 दिन स्वर्ग का दरवाजा खोल दिया जाता है। यहां के पूजा-पाठ और पिंड दान करने के बाद ही लोग गया के लिए जाते हैं। काशी विद्वत परिषद के संगठन मंत्री पं. दीपक मालवीय ने बताया कि श्राद्ध कृत्य में लोहे का बर्तन इस्तेमाल करना वर्जित है। भोजन में अरहर, मसूर, कद्दू, बैगन, गाजर, शलजम, सिंघाड़ा, जामुन, अलसी, चना आदि का प्रयोग नहीं किया जाता है। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सात्विक भोजन ग्रहण करें। श्राद्ध पक्ष में कोई भी नया कार्य आरंभ नहीं करना चाहिए। श्राद्ध पक्ष में अपने परिवार के अतिरिक्त अन्यत्र भोजन आदि कुछ भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। पितृपक्ष की शुरुआत 21 सितंबर से हो रही है जो कि छह अक्तूबर तक रहेगा। इन दिनों में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जाएगा। ज्योतिषाचार्य पं. गणेश मिश्र के अनुसार इस बार तिथियों की घट-बढ़ के बावजूद पितरों की पूजा के लिए 16 दिन मिल रहे हैं। पितृपक्ष खत्म होते ही अगले दिन से नवरात्रि शुरू हो जाती है। दिन का आठवें मुहूर्त 48 मिनट की कुतप संज्ञा है जो दिन में लगभग 12 बजे के आसपास आता है। इस काल में पितृकर्म अक्षय होता है। स्नान करके तिलक लगाकर प्रथम दाहिनी अनामिका के मध्य पोर में दो कुशा और बायीं अनामिका में तीन कुशों की पवित्री धारण करना चाहिए। फिर हाथ में त्रिकुश, यव, अक्षत और जल लेकर संकल्प करें। अद्य श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थं पितृतर्पणं करिष्ये। इसके बाद तांबे के पात्र में जल और चावल डालकर त्रिकुश को पूर्वाग्र रखकर उस पात्र को दाएं हाथ में लेकर बायें हाथ से ढककर पितरों का आवाहन करें। ध्यान रखें:- दक्षिण दिशा की ओर मुंह करें। अपसव्य होकर बैठना चाहिये अर्थात् जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखकर बायें हाथ के नीचे ले जाएं। गमछे को भी दाहिने कंधे पर रखें। बायां घुटना जमीन पर लगाकर बैठें। अर्घ्यपात्र में काला तिल छोड़ें। कुशों के बीच से मोड़कर उनकी जड़ और अग्रभाग को दाहिने हाथ में तर्जनी और अंगूठे के बीच में रखें। अंगूठे और तर्जनी के मध्यभाग को पितृ तीर्थ कहते हैं। पितृतीर्थ से ही पितरों को जलांजलि देनी चाहिए। पितरों की तृप्ति के लिए ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए। पितरों को जलांजलि दी जानी चाहिए। इन 16 दिनों में जरूरतमंदों को भोजन बांटना चाहिए। इसके परिणाम स्वरूप कुल और वंश का विकास होता है। परिवार के सदस्यों को लगे रोग और कष्टों दूर होते हैं। पितृपक्ष का आखिरी दिन सर्वपितृ अमावस्या होती है। इस दिन परिवार के उन मृतक सदस्यों का श्राद्ध किया जाता है, जिनकी मृत्यु अमावस्या, पूर्णिमा या चतुर्दशी तिथि को हुई हो। अगर कोई सभी तिथियों पर श्राद्ध नहीं कर पाता तो सिर्फ अमावस्या तिथि पर श्राद्ध भी कर सकता है। इस बार सर्वपितृ अमावस्या छह अक्तूबर को है।