Budhwa Mangal : भले ही होली बीत गई है, लेकिन अभी उसकी खुमारी छाई हुई है, इसका समापन शिवनगरी काशी में कुछ खास अंदाज में होता है, जिसे ‘बुढ़वा मंगल’ का नाम दिया गया है, जो होली के बाद पड़ने वाले पहले मंगलवार को कहा जाता है. उस दिन काशी में गीत, गुलाल और खुशियों के साथ अनोखा जश्न मनाया जाता है.
काशी में बुढ़वा मंगल की परंपरा वर्षो पुरानी है और इस परंपरा को बनारस आज भी संजोए हुए है. वाराणसी में इस त्योहार को लोग होली के समापन के रूप में भी मनाते हैं जहां होली की मस्ती के बाद बनारसी जोश के साथ अपने पुराने काम के ढर्रे पर लौट जाते हैं.’
बनारस के कई घाटों पर होता है इस परंपरा का निर्वहन
होली के बाद पड़ने वाले पहले मंगलवार को बनारस के कई घाटों पर इस परंपरा को निभाई जाती है. इस दौरान दशाश्वमेध घाट से अस्सी घाट तक बुढ़वा मंगल की खुमारी में लोग डूबे हुए नजर आते हैं. वहीं, गंगा नदी में खड़े बजड़े में लोकगायक अपनी प्रस्तुति देते हैं. इसमें बनारस और आस पास के जिलों के कई लोकगायक और कलाकार शामिल होते हैं. बनारसी घराने की होरी, चैती, ठुमरी से शाम और सुरीली हो उठती है.
विदेशी से भी सैलानी उठाते हैं लुत्फ
इस मौके पर कलाकारों के कमाल की प्रस्तुति को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं, इस दौरान देश ही नहीं विदेशों से भी सैलानी बनारस की बुढ़वा मंगल की परंपरा का लुत्फ उठाते नजर आते हैं.
‘होली के बाद लोगों को होता है बुढ़वा मंगल का इंतजार’
स्थानीय लोगों का कहना है कि होली के बाद तो हम लोगों को बुढ़वा मंगल का इंतजार रहता है. इस दिन घरों में भी पकवान बनता है और दोस्तों और परिवार में होली मिलने जाने का अंतिम दिन होता है. इस दिन के बाद घरों से गुलाल-अबीर को अगले साल होली आने तक के लिए रोक दिया जाता है. घाट पर जाकर लोकगीत और त्योहार के रंग को सेलिब्रेट करते हैं.’
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