राजस्थान/पुष्कर। परम् पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा कि श्रीमद्भगवद्गीता में आया है कि मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिए। उद्धार करने का अर्थ है ऊँचा उठना। ऊँचा उठने में बाधा है- संग्रह की रूचि। संग्रह की रुचि से पतन होता है। आप धनपति बने, धनदास न बने, अर्थात् धन की इच्छा न करके प्राप्त धन का सदुपयोग करें। इच्छा से धन नहीं मिलता। यदि इच्छा से धन मिलता तो संसार में निर्धन कौन रहता। धन आपके काम नहीं आता, बल्कि धन का खर्च (त्याग) आपके काम आता है। जिसके भीतर धन के संग्रह की रूचि है, उसका ह्रदय कठोर हो जाता है और वह दूसरे के दु:ख से दु:खी नहीं होता। संग्रह किया हुआ धन तो साथ चलेगा नहीं पर उसकी रूचि साथ चलेगी। एक मार्मिक बात है कि दूसरे के दु:ख से दु:खी होने वाले को खुद दु:खी नहीं होना पड़ता, प्रत्युत: वह महान् सुखी हो जाता है। संसार को असत्य मानने से ही कल्याण होता है, यह नियम नहीं है। संसार को सत्य मानने पर भी तत्व और प्रेम की प्राप्ति हो सकती है। यदि आप संसार को सत्य मानते हैं तो स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके सबकी सेवा करो। तत्व की प्राप्ति हो जाएगी। परन्तु सेवा में भेद नहीं रखना चाहिए। ये हमारे वर्ण, सम्प्रदाय, धर्म, देश आदि के हैं तो इनकी सेवा करेंगे, पर दूसरे की सेवा नहीं करेंगे, ऐसा भेद होगा तो तत्व की प्राप्ति नहीं होगी। व्यवहार में भेद भले ही हो पर सेवा में नहीं। सबसे ऊंचा है सेवा भाव। भाव होगा तो क्रिया भी वैसी ही होगी। भगवान् भी भावग्राही हैं। भगवान् भाव देखते हैं, यह नहीं देखते कि इसने कितना रुपया लगाया है। जिनके हृदय में प्राणी मात्र के हित का भाव है। उसके दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप आदि से दूसरों का कल्याण होता है। सबका हित, सेवा करना हमारे हाथ की बात नहीं है, पर भाव बनाने में स्वतंत्र है। प्राणीमात्र के हित का भाव रखने वाले ही भगवान् के साथ एकता हो जाती है। क्योंकि भगवान् भी प्राणी मात्र का हित चाहते हैं। अतः उसके भीतर, भगवान की शक्ति काम करने लगती है। अतः आपके पास जो है, उसी से सबकी सेवा करो। सभी हरि भक्तों के लिए पुष्कर आश्रम एवं नवनिर्माणाधीन गोवर्धन धाम आश्रम से साधू संतों की शुभ मंगल कामना-श्री दिव्य मोरारी बापू धाम सेवाट्रस्ट गनाहेड़ा पुष्कर
जिला-अजमेर (राजस्थान)।