राजस्थान/पुष्कर। परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा कि यह संपूर्ण संसार भगवान विष्णु से उत्पन्न हुआ और उन्हीं में स्थित है प्रलय काल में उन्हीं में लय को प्राप्त हो जाता है। भगवान में ही स्थित है, भगवान से उत्पन्न होकर भगवान से अलग नहीं है। भगवान में ही स्थित है और प्रलय- काल में भगवान में ही लय को प्राप्त हो जाता है। अर्थात भगवान ही जगत के रूप में प्रगट होते हैं। ये जगत भगवान का ही प्रकट रूप है। इसलिए परमात्मा को जो वेदों में पूर्ण कहा कि उस पूर्ण परमात्मा से जगत उत्पन्न हुआ, इसलिए यह भी पूर्ण है। पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्चते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। वेदमंत्र इसका यही अर्थ है- पूर्णमदः पूर्णमिदं= उस पूर्ण परमात्मा से यह पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ। पूर्णात् पूर्णमुदच्चते=उस पूर्ण से यह जगत पूर्ण निकला। लेकिन पूर्ण से पूर्ण निकलने पर भी वह पूर्ण ही है,वो अपूर्ण नहीं हुआ। पूर्णमदः= परमात्मा,पूर्णमिदं= यह जगत, पूर्णात्= उस परमात्मा से पूर्णमुदच्चते=पूर्ण को निकाला गया, पूर्णस्य पूर्णमादाय= उस पूर्ण से पूर्ण को ले लेने के बाद भी, पूर्णमेवावशिष्यते= पूर्ण ही बचा, वही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा है।
यह जगत भी परमात्मा का रूप है। यही वैष्णव सिद्धांत है, जो जगत का करता भी है और स्वयं जगत का रूप भी है। ये सारा जगत भगवान का ही रूप है। इसलिए भगवान का पहला नाम क्या है? तो कहते हैं विश्व, आप कहेंगे विश्व माने दुनिया होता है। विश्व माने संसार- लेकिन विश्व भगवान का नाम है। भगवान का सबसे पहला नाम विश्व है। पहले भगवान विश्व के रूप में हैं। यह भगवान का रूप है। इसलिए भगवान विष्णु के हजार नामों में सबसे पहला नाम विश्व ही लिया। भीष्म पितामह ने शरसैय्या पर जो विष्णु सहस्रनाम का उच्चारण किया। उसमें सबसे पहला नाम विश्व है। छोटीकाशी बूंदी की पावन भूमि, श्री सुदामा सेवा संस्थान (वृद्धाश्रम) का पावन स्थल, पूज्य महाराज श्री-श्री घनश्याम दास जी महाराज के पावन सानिध्य में- चातुर्मास के पावन अवसर पर चल रहे सत्संग श्री विष्णु महापुराण के चतुर्थ दिवस की कथा में भगवान विष्णु के प्राकट्य की कथा का वर्णन किया गया। कल की कथा में द्वितीय अंश की कथा का वर्णन किया जायेगा।