मुंबई। दुनिया भर के देशों में लोगों का समाचार चैनलों की ओर से दिखाये जा रहे समाचारों की लोकप्रियता, दर्शनीयता और विश्वसनीयता कम होती जा रही है जिससे उनका इन समाचारों के प्रति रुझान लगातार कम होता जा रहा है। रायटर्स इंस्टीट्यूट की हालिया रिपोर्ट में यह बात सामने आ रही है।
एक समय था कि लोग समाचारों का बेसब्री से इंतजार किया करते थे आज न्यूज देखना ही पसंद नहीं करते। टीवी चैनलों पर लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है। जिस तरह से समाचारों को सनसनी बनाकर प्रस्तुत किया जाता है और जिस तरह से घटनाओं को लेकर बहस होती है उसका स्तर इतना गिर गया है कि लोग देखना ही पसंद नहीं करने लगे हैं।
समाचार चैनलों को अब अपने प्रोग्राम में क्राइम समाचार, ज्योतिष, स्वास्थ्य या अन्य विषयों को जोड़ना पड़ रहा है। यह कोई हमारे देश की चिंता या यथार्थ नहीं हैं बल्कि दुनिया के अधिकांश देशों में यही हो रहा है।
रायटर्स इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट माने तो ब्राजील में 54 प्रतिशत और अमेरिका में 42 प्रतिशत लोगों ने चैनलों पर न्यूज देखना ही छोड़ दिया है। इंग्लैण्ड में 46 प्रतिशत लोगों ने तो आस्ट्रेलिया में 41 प्रतिशत, फ्रांस में 36 प्रतिशत, स्पेन में 35 प्रतिशत, जर्मनी में 29 प्रतिशत और जापान में 14 प्रतिशत लोगों ने समाचार देखना ही बंद कर दिया है।
समाचारों के प्रति जिस तरह से लोगों का रुझान कम हो रहा है इसे लेकर चैनलों को भी समय रहते सोचना होगा। देश में टीवी आने से पहले के दिन याद कीजिए, पुरानी पीढ़ी के लोग उस समय के समाचार बुलेटिन की अहमियत समझते थे और नेशनल बुलेटिन के लिए रेडियों पर सुबह आठ बजे और रात पौने नौ बजे के समाचारों का बेसब्री से इंतजार करते थे।
घड़ी का समय समाचारों से मिलाया जाता था तो समाचारों की विश्वसनीयता भी थी। इसी तरह से लोकल समाचारों के भी समय तय थे और उनका इन्तजार रहता था। उस जमाने में पान की दुकानों पर भी लोग समाचार सुनने के लिए एकत्रित हो जाते थे। रेडियों पर सुने गये समाचारों पर लोगों को विश्वास रहता था।
अविश्वास का तो प्रश्न ही नहीं। उस जमाने के समाचार वाचक किसी डिग्निटी से कम नहीं माने जाते थे। इसके बाद दूरदर्शन के शुरुआती दौर में भी समाचार बुलेटिनों का अपना महत्व रहा। जब शुरुआत में निजी समाचार कार्यक्रम आज तक शुरू हुआ तो लोगों में क्रेज रहा। वैसे देखा जाय तो टीवी चैनल्स के समाचारों के प्रति लोगों की विश्वसनीयता अधिक होनी चाहिए क्योंकि इसमें विजुअल भी होते हैं परन्तु टीआरपी के चक्कर में जिस तरह से समाचार प्रस्तुत होने लगे उससे लोगों का रुझान अपने आप कम होने लगा है।
विशेषज्ञों की माने तो न्यूज की मनमानी प्रस्तुति और सनसनीखेज प्रस्तुतिकरण से लोगों का मोह भंग होने लगा है। एक अन्य कारण समाचार चैनलों पर गिरता बहस का स्तर है। राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि एक-दूसरे पर व्यक्तिगत छिंटाकशी के स्तर पर आ जाते हैं और तर्क के स्थान पर कुतर्क के कारण लोग अब इन बहसों से दूर होने लगे हैं।
यह सही है कि बहस में अपना पक्ष रखा जाना चाहिए परन्तु अपने पक्ष के स्थान पर तू-तू, मैं-मैं के स्तर पर आना और चैनल पर जोर-जोर से बोलते हुए सब्जी मण्डी का दृश्य बना देना किसी को भी अच्छा नहीं लगता। अब समय आ गया है जब समाचार चैनलो को अपनी भूमिका नए सिरे से तय करनी होगी। कभी रेडियो जिस तरह से आम आदमी के दिलो-दिमाग में रच-बस गया था वैसी इमेज समाचार चैनलों को बनानी होगी। बहसों में भी प्रवक्ताओं को पूरी तैयारी के साथ आना होगा और दूसरे पर कटाक्ष के स्थान पर अपना पक्ष या चर्चा के विषय पर सार्थक बहस करनी होगी तो समाचार चैनल अपने अस्तित्व को बचाये रख सकेंगे।