धर्म। शीतला माता की पूजा हर वर्ष चैत्र महीने की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन शीतला माता की पूजा का विधी विधान है। मान्यता हैं कि शीतला माता को आरोग्य की देवी है। इनको ठंडा यानी शीतल भोजन बहुत प्रिय है, यही कारण है कि शीतला माता का भोग एक दिन पहले यानी सप्तमी के दिन तैयार कर लिया जाता है। पूजा के साथ व्रत में कथा पढ़ने का बहुत महत्व है।
पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के मुताबिक एक बार पार्वती स्वरूपा देवी शीतला माता की पृथ्वी पर घुमने की इच्छा हुई। उन्होंने विचार किया कि इस चराचर जगत में उनकी पूजा कौन करता है, कौन उन्हें मानता है? शीतला माता ने बुढ़िया का रूप धारण कर धरती पर राजस्थान के डूंगरी गांव पहुंची और देखा कि आस-पास उनका कोई मंदिर नहीं है और न ही कोई उनकी पूजा करता है। माता शीतला गांव की गलियों में घूम रही थीं कि तभी एक मकान के ऊपर से किसी ने चावल का उबला पानी (मांड) नीचे फेंका। उबलता पानी शीतला माता के ऊपर गिरा जिससे शीतला माता के शरीर में फफोले (छाले) पड़ गए। शीतला माता के पूरे शरीर में ताप होने लगा। शीतला माता चिल्लाने लगीं, ‘अरे मैं जल गई, मेरा शरीर तप रहा है, जल रहा है, कोई मेरी मदद करो। लेकिन उस गांव में किसी ने भी शीतला माता की मदद नहीं करने आया।
बता दे कि एक कुम्हारन (महिला) अपने घर के बाहर बैठी थी। उसने देखा कि बूढ़ी काफी जल गई है। महिला ने बूढ़ी माई पर खूब ठंडा पानी डाला और बोली, ‘हे मां, मेरे घर में रात की बनी हुई राबड़ी रखी है और थोड़ा दही भी है। तू दही-राबड़ी खा ले। बूढ़ी माई ने ठंडी (जुवार) के आटे की राबड़ी और दही खाया तो शरीर को ठंडक मिली। महिला की नजर उस बूढ़ी माई के सिर के पीछे पड़ी तो कुम्हारन ने देखा कि एक आंख बालों के अंदर छुपी है। यह देखकर वह कुम्हारन डर के मारे घबराकर भागने लगी। इसी दौरान उस बूढ़ी माई ने कहा कि रुक जा बेटी, तू डर मत। मैं कोई भूत-प्रेत नहीं हूं। मैं शीतलादेवी हूं। मैं तो इस धरती पर यह देखने आई थी कि मुझे कौन मानता है? कौन मेरी पूजा करता है?’ इतना कह माता चार भुजा वाली हीरे-जवाहरात के आभूषण पहने सिर पर स्वर्ण मुकुट धारण किए अपने असली रूप में प्रकट हो गईं।
माता के दर्शन कर महिला सोचने लगी कि अब मैं गरीब इस माता को कहां पर बैठाऊं? उसने देवी मॅा से कहा कि मेरे घर में तो आपको बैठाने तक का स्थान नहीं है, आपकी सेवा कैसे करूं? शीतला माता प्रसन्न होकर उस महिला के घर में खड़े गधे पर बैठ गईं। उन्होंने एक हाथ में झाडू तथा दूसरे हाथ में डलिया लेकर महिला के घर की दरिद्रता को झाड़कर डलिया में भरकर फेंक दिया, साथ ही महिला से वरदान मांगने को कहा। महिला ने हाथ जोड़कर कहा, ‘माता, मेरी इच्छा है कि अब आप इसी (डूंगरी) गांव में स्थापित होकर रहो। होली के बाद की अष्टमी को जो भी भक्तिभाव से पूजा कर आपको ठंडा जल, दही व बासी ठंडा भोजन चढ़ाए, उसके घर की दरिद्रता को दूर करो।’
शीतला माता ने महिला को सभी वरदान दे दिए और आशीर्वाद दिया कि इस धरती पर उनकी पूजा का अधिकार सिर्फ कुम्हार जाति का ही होगा। उसी दिन से डूंगरी गांव में शीतला माता स्थापित हो गईं और उस गांव का नाम हो गया शील की डूंगरी। शीतला माता अपने नाम की तरह ही शीतल है, वो अपने भक्तों पर खूब कृपा करती हैं।