नई दिल्ली। कर्ज लिया हुआ धन बट्टे खाते में डाले जाने की प्रवृत्ति देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक है। इससे विकास कार्य तो प्रभावित होगा ही साथ ही यह उन लोगों के साथ धोखा है, जो वास्तविक रूप से जरूरतमंद हैं। एक ओर गरीब और मध्यम वर्ग भीषण महंगाई से जूझ रहा है, उसको राहत देने की जगह डिफाल्टरों का ऋण मुक्त किया जाना देश के साथ धोखा है।
ऋण धर्म कहता है कि जो ऋण लिया गया है उसे ब्याज सहित लौटाने की जिम्मेदारी कर्ज लेने वाले की होती है लेकिन देश में जो बड़े लोगों की ऋण मुक्त करने की प्रवृत्ति बनी है, वह देश को कमजोर करने वाली है। इससे उन कम्पनियों को प्रोत्साहन मिलता है जो बैंकों से बड़े-बड़े ऋण ले लेते हैं, परन्तु चुकाते नहीं है।
ऐसे लोगों को देशद्रोही की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और उनकी सम्पत्ति कुर्क कर वसूली की जानी चाहिए। बैंकों ने पिछले पांच वर्षों में लगभग दस लाख करोड़ के ऋण को बट्टे खाते में डाला है। यह प्रशासनिक तंत्र की विफलता है। सरकार को इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है, क्योंकि कम्पनियां कर्ज लेकर इसका इस्तेमाल दूसरी जगह कर अपने को दिवालिया घोषित कर देती हैं और बैंक अधिकारियों, प्रभावशाली नेताओं की मिली भगत से जनता की गाढ़ी कमाई को बट्टे खाते में डाल देती है।
वित्त राज्यमंत्री भागवत किशन कराड ने राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में बताया है कि 2017 से 2022 तक बैंकों ने 9,91,640 करोड़ रुपये की राशि बट्टे खाते में डाल दिया। सरकार को इस तरह की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए कड़े कदम उठाना चाहिए और ऋणमुक्ति को पूरी तरह बंद किया जाना चाहिए। भारतीय रिजर्व बैंक को ऐसा नियम बनाना चाहिए जिससे ऋण लेने वाला ऋण चुकाने के लिए बाध्य हो ।