नई दिल्ली। केंद्र सरकार की ओर से शेड्यूल्ड ड्रग्स की कीमतों को बढ़ाने की मंजूरी दे दी गई है जो मरीजों के लिए परेशानी भरा और आर्थिक बोझ बढ़ाने वाला है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में इन दिनों जिस तरह से उछाल हुआ है वह तो लोगों को परेशान कर ही रहा है इसी बीच दवाओं की कीमतों में भी 10.7 फ़ीसदी की बढ़ोतरी किया जाना तो जैसे मरीजों के इलाज से पहले ही मर जाने वाली बात हो गई। कमजोर वर्ग का अब कैसे इलाज होगा यह एक गंभीर प्रश्न बन गया है।
फार्मा इंडस्ट्री पिछले कई साल से दवाओं की कीमतें बढ़ाने की मांग कर रही थी। कोरोना काल के चलते यह काम रुक गया था लेकिन अभी हाल ही में दी गई मंजूरी ने एक बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। नेशनल फार्मा प्राइजिंग अथारिटी (एनपीपीए) के अनुसार थोक महंगी दर के आधार पर करीब आठ सौ प्रकार की दवाइयों की कीमतों में बढ़ोतरी होगी। इसमें हृदय रोग, उक्त रक्तचाप, संक्रमण, बुखार और त्वचा सहित विभिन्न प्रकार के रोगों के दवाएं शामिल है। दर्द निवारक, एंटीबायोटिक और बुखार की सामान्य दवा परासिटामोल जैसी छोटी-छोटी दवाइयां भी महंगाई की जद में आ जाएंगी। यह मरीजों के लिए बहुत कष्टकारी है। सरकार को हर तरफ से महंगाई पर नियंत्रण करने की जरूरत है। इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में लाया जाय। पेट्रोलियम पदार्थो की कीमते घटने से बहुत सी वस्तुओं की कीमत घट सकती है। रोग के इलाज कराने में मरीज और तीमारदार भारी भरकम कर्ज या आर्थिक बोझ के तले दब जाते हैं।
कई बार उनकी स्थिति सुधरने में एक लंबा समय लग जाता है। इलाज में दवाइयों की कीमत का बड़ा असर पड़ता है। कोरोना काल के बाद से तो एक बार समाजिक व्यवस्था पर भी काफी असर पड़ा है। लोगों के कारोबार प्रभावित हुए। बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हुए। अभी भी लोग आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं और ऐसे में जीवन रक्षक जरूरी दवाइयों की कीमत का बढ़ना आगे भयावह स्थिति पैदा कर सकता हैं। अभी रसोई की कीमत में 50 प्रति सिलेंडर की वृद्धि की गई जो साधारण परिवारों के लिए बहुत भारी है। इसके तत्काल बाद दवाओं की कीमत में इतनी बड़ी वृद्धि भी सरकार की नीयत पर सवाल खड़े कर रही है। एक और सरकार लोगों की स्वास्थ्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के दावे कर रही है और दूसरी ओर दवाइयों के दाम बढ़ाई रही हैं। यह नीति गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए किसी भी प्रकार से राहतकारी नहीं है।