नई दिल्ली। कोरोना महामारी ने पांच लाख से ज्यादा लोगों को असमय अपनों से छीन लिया। वह पीड़ा और कमी कोई दूसरा नहीं भर सकता। इससे दुख की बात यह रही कि कई बच्चों के सिर से उनके माता-पिता का साया हमेशा के लिए उठ गया। नेशनल कमीशन फॉर प्रोटैक्शन आफ चाइल्ड राइट्स’ ने सुप्रीम कोर्ट में कोरोना काल में अनाथ बच्चों के संबंध में जो जानकारी दी थी उससे स्थिति की गम्भीरता का पता चलता है।
कमीशन के अनुसार मार्च 2020 से 29 मई 2021 तक देश में कोरोना से कुल 9346 बच्चें प्रभावित हुए हैं, जिनमें से 1742 बच्चों के माता-पिता दोनों नहीं रहे तथा लगभग 7464 बच्चे ऐसे हैं, जिन्होंने दोनों में से किसी एक अभिभावक को खोया है, जबकि इसी दौरान कुल 140 बच्चों को बेसहारा छोड़ दिया गया। जिन बच्चों के माता या पिता में से कोई एक बिछुड़ गया, उन में सर्वाधिक 1830 बच्चे उत्तर प्रदेश से हैं।
सरकार ऐसे अनाथ बच्चों को केंद्रीय, नवोदय अथवा सैनिक स्कूलों में पढ़ाएगी। उनका पूरा खर्च वहन करेगी। उच्च शिक्षा के लिए बैंक ऋण भी मुहैया करायगी और मानदेय के तौर पर चार हजार रुपये प्रति माह बच्चों के खातों में हस्तांतरित किए जायंगे। बच्चें की उम्र 23 वर्ष होगी तो सरकार एकमुश्त दस लाख रुपये प्रति बच्चे को मदद भी देगी। यकीनन मोदी सरकार के आठ साल पूरे होने के अवसर पर
पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन के तहत यह आर्थिक और व्यक्तिगत मदद प्रशंसनीय हैं। अब लोगों का सुझाव है कि इस श्रेणी में उन बच्चों को भी रखा जाय, जिनकी मां तो जिंदा है लेकिन कामकाजी नहीं है और कोरोना में पिता की मौत हो चुकी है। ऐसे परिवारों को संबल देना इसलिए जरूरी है, ताकि बच्चें की मां को घर-घर जाकर काम न करना पड़े और वह अच्छी तरह बच्चें का लालन-पालन कर सके।
चूंकि सरकारी डाटा इकट्ठा करने का काम नौकरशाही और निचले कर्मचारी ही करते हैं। कौन बच्चा अनाथ है, इसे प्रमाणित भी कर्मचारी या अधिकारी ही करते हैं। वह इस पुनीत काम में ‘भ्रष्टाचार’ न करें और लालफीताशाही का भी बहाना न बनायें। दरअसल भारत में डाटा सवालिया रहा है। प्रख्यात विज्ञानी एवं शोध पत्रिका ‘द लांसेट’ ने एक अध्ययन छापा था कि भारतमें करीब 19 लाख बच्चों ने, कोरोना महामारी विस्तार के दौरान,
अपने माता- पिता अथवा एक अभिभावक को खोया है। इसके उलट केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के पास फरवरी 2022 तक करीब 3890 अनाथ बच्चोंका ही डाटा है। अब भी प्रधान मंत्री की योजना में कुल 4345 बच्चों को ही शामिल किया गया है। उन्हें ही ‘आयुष्मान भारत’ के कार्ड और पासबुक आदि दस्तावेज मुहैया कराये गये हैं,
जबकि योजना की भावना है कि प्रत्येक अनाथ बच्चें को सरकारी मदद मिलना अनिवार्य है। यदि इसी डाटा पर योजना जारी रहती है तो वह अधूरी ही साबित होगी। सवाल यह भी है कि यदि अनाथ बच्चा घर में अकेला रहता है तो क्या उसे उसी स्थिति में ही रहने देना चाहिए? यदि वह दादा-दादी या ननिहाल में रहता है, तो बच्चें की सरकारी आर्थिक मदद छीनी जा सकती है। घर के बड़े सदस्य लालन-पालन के नाम पर मानदेय में भी
हिस्सेदारी कर सकते हैं। सरकार इसे कैसे रोकेगी ? अकेले बच्चे का मनोविज्ञान भी बिगड़ सकता है तो उस स्थितिमें सरकार क्या करेगी? क्या बच्चेको आवासीय स्कूल में रखा जायगा तो अवकाश के दिनों में क्या होगा? इस संदर्भ में सरकारी कर्मचारियों और कुछ बेहतर सामाजिक संघटनों को भी घर-घर भेजकर डाटा इकट्ठा कराया जाय कि वाकई किसे मदद की पहली जरूरत है?
कमोबेश इस प्रक्रिया में तकनीकी पक्ष और खामियों को दूर रखा जाय और मानवीय अनिवार्यता को ही मानक बनाया जाय। पूरे देश में एक सर्वे कराया जाना चाहिए कि हमारे यहां कितने बच्चें अनाथ हैं। सर्वे के बाद उनके लिए कोई स्थायी नीति बनायी जानी चाहिए। उनके खानपान की व्यवस्था,
उन्हें शिक्षित करना तथा उन्हें किसी रोजगार के काबिल बनाना, यह सरकार का दायित्व होना चाहिए। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल योजना लांच करते समय कहा था कि ‘बच्चें भारत के भविष्य हैं और हम उनकी सुरक्षा और सहायता के लिए सब कुछ करेंगे।