नई दिल्ली। भारत देश में ऐसे अनेक राज्य हैं, जहां हिन्दूओं की संख्या कम होती जा रही है लेकिन वहां अल्पसंख्यकों को मिलने वाला लाभ केन्द्र सरकार से घोषित मुसलमान, सिख, ईसाई समुदाय को ही मिल रहा है, जबकि उन राज्यों में वह बहुसंख्यक हो गए हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना कि धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों की पहचान राज्यवार होनी चाहिए, सर्वथा उचित और सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।
इससे वास्तविक लोगों को उसका लाभ मिल सकेगा जो पात्र होते हुए भी अब तक इस सुविधा के वंचित हैं। न्यायमूर्ति यू.यू. ललित और न्यायमूर्ति एस. रविन्द्र भट की पीठ ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए कहा है कि धर्म और भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा राज्य स्तर पर ही किया जाना चाहिए।
मथुरा के कथा वाचक देवकी नन्दन ठाकुर की अल्पसंख्यकों की जिलेवार पहचान करने के लिए सरकार को दिशा- निर्देश तय करने का आदेश देने की मांग पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि जिला स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान का आदेश नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि यह कानून विरुद्ध है, इसलिए राज्यवार ही अल्पसंख्यकों की पहचान होनी चाहिए।
पीठ ने अश्विनी कुमार उपाध्याय की उस लम्बित याचिका को भी इसी याचिका के साथ लगाने का आदेश दिया, जिसमें कुछ राज्यों में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग की गई है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से अब उन लोगों को लाभ मिलने का मार्ग प्रशस्त हो गया जो योजनाओं के हकदार होते हुए भी वंचित और पीड़ित हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान करते हुए धर्म और भाषा के आधार पर उनकी आबादी की जनगणना करानी चाहिए, जिससे वास्तविक अल्पसंख्यकों को उनका लाभ मिल सके।