पुष्कर/राजस्थान। परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा कि कर्म रूपी बीज ही दुःख और सुख रूपी फल देते हैं। धृतराष्ट्र ने भगवान् श्रीकृष्ण से एक बार पूछा भी था कि मैं जन्म से अंधा क्यों हुआ? और मेरे सौ पुत्र क्यों मारे गये। युवानी में पुत्र का मरना पाप ही तो है, तुलसी या तन खेत है मन वचन कर्म किसान। पाप पुण्य दोउ वीज हैं वावै सो लहै सुजान। हमारा मन किसान है, शरीर खेत है, कर्म ही बीज है, हम जैसे कर्म रूपी बीज होते हैं, वैसे ही दुःख और सुख रूपी फल हमें मिला करते हैं। हमें दुःख या सुख देने वाला कोई दूसरा नहीं है। हमारे अपने कर्म ही हमें दुःख और सुख के रूप में मिलते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने बताया कि आप पिछले जन्म में राजा थे। एक तपस्वी ब्राह्मण, जिसके पास एक हंसों का जोड़ा था कुछ हंस के बच्चे भी थे, जब वह तीर्थ- यात्रा को जाने लगा तो आप पर उन्होंने विश्वास किया और अपने हंस का जोड़ा और बच्चे आपके पास रख गये, कि हम तीर्थ यात्रा करने जा रहे हैं, लौटकर आएंगे तो ले लेंगे। उन दिनों पैदल यात्राएं होती थी, कई वर्ष लग जाते थे। यहां राजा के मन में इच्छा हुई और दूषित विचार हुआ जिससे एक-एक करके समस्त हंस के बच्चों को मार दिया। यह पिछले जन्म की बात है। जब ब्राह्मण लौटकर आया, उसने कहा अन्नदाता मेरे बच्चे और हंस का जोड़ा कहां है? बोले अरे ब्राह्मण देवता जब आप यात्रा को चले गये, तो थोड़े दिन बाद ही तुम्हारे हंस का जोड़ा और बच्चे बीमार हो गये, हमने बहुत औषधियां दी कोशिश की लेकिन उन्हें न बचा सका। ब्राह्मण की आंखों में धूल झोंक दी। गुरु संग कपट मित्र संग चोरी। या हो निर्धन या हो कोढ़ी।।जो गुरु के साथ कपट करेगा, मित्र के साथ चोरी करेगा, वह या कोड़ी हो जायेगा या जीवन भर पैसे के लिए रोता रहेगा। तुमने ब्राह्मण को धोखा दिया, उसकी आंख में धूल झोंकी, इसीलिए तुम जन्म से अंधे बने, तुमने ब्राह्मण के हंस के 100 बच्चों को मार दिया, इसलिए तुम सौ पुत्रों के पिता होकर, आज निपूते होकर बैठे हो, तुम्हारा एक भी पुत्र जीवित नहीं है। करनी सो भरनी। यही सिद्धांत है।