उनचास वर्ष में पूर्ण होता है जीवन का पूर्वार्ध: दिव्य मोरारी बापू

पुष्कर/राजस्थान। परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा कि श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कंध उत्तरार्ध-दशम स्कंध के दो भाग हैं पूर्वार्ध और उत्तरार्ध। उनचास अध्याय में पूर्वार्ध पूर्ण हुआ। पचासवें अध्याय से उत्तरार्ध शुरू होता है। जीवन का भी पूर्वार्ध उनचास वर्ष में पूर्ण होता है और जब पचासवां वर्ष लग जाये तो समझो कि जीवन का भी उत्तरार्ध अब शुरू हो गया। उत्तरार्ध में पांचजन्य शंख की कथा है। एक में वेणुनाद दूसरे में शंखनाद। वेणुनाद से भक्तों के मन को अपनी ओर आकृष्ट किया है और शंखनाद से शत्रुओं के हृदय को कम्पायमान किया है। आरंभ में जरासंध की कथा है। जरासंध कंस का ससुर जी है। अस्ति- प्राप्ति का जरासंध पिता है। जब कंस को मारा तो जरासंध ने आक्रमण किया, तब जरासंध आता है। जरा माने वृद्धावस्था,अब वृद्धावस्था का हमला शुरू होगा। बाल सफेद हो जायेंगे, आंखों का तेज कम हो जायेगा। जरासंध आक्रमण करता है देह रूपी मथुरा पर। वह सत्तरह बार आया तेईस-2 अक्षौहिणी  सेना लेकर और सत्तरह बार भगवान् ने उसको पराजित किया। वह अट्ठारहवीं वार आ रहा था। उसी समय देवर्षि नारद का भेजा हुआ कालयवन आया है। भगवान् ने युक्ति की है, क्योंकि कालयवन माने काल, मृत्यु। जरासंध माने जरा, वृद्धावस्था। दोनों एक साथ मिल करके हमला करें तो फिर अब देह बदलना पड़ेगा, तब नगर को परिवर्तन करना पड़ेगा, अब स्थलांतर करना पड़ेगा। स्थानांतरण अनिवार्य हो गया।भगवान् की आज्ञा से विश्वकर्मा ने द्वारिका नगरी का निर्माण किया। समुद्र के पश्चिम किनारे पर, द्वीप पर भगवान् ने अपनी योगमाया से यादवों  को वहां द्वारिका पहुंचा दिया। जरासंध आया और उसके साथ ही देवर्षि नारद का भेजा हुआ कालयवन भी आया, भगवान् ने दाऊ जी के साथ मिलकर योजना बनायी, दाऊ दादा आप जरासंध से युद्ध करिये। मैं कालयवन का काम तमाम करता हूं। कालयवन का उद्धार भगवान् ने मुचुकुंद महाराज के द्वारा करवाया। सभी हरि भक्तों के लिए पुष्कर आश्रम एवं गोवर्धन धाम आश्रम से साधू संतों की शुभ मंगल कामना।

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