नई दिल्ली। सरकार बड़े-बड़े कार्यक्रम चलाकर सबको शिक्षा का ढिंढोरा भले पीट रही हो लेकिन सरकारों की वास्तविकता इसके ठीक उलट है। यही कारण है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम अभी शत-प्रतिशत साक्षरता मिशन में पीछे ही रह गए हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है शिक्षा के संसाधनों की कमी। आज भी शिक्षा बहुत बड़ी आबादी की पहुंच तक नहीं हो पाई है। इसमें सबसे फिसड्डी बिहार है जहां की साक्षरता मात्र 54.1% है। पूरे भारत की साक्षरता प्रतिशत 74 फ़ीसदी है। शिक्षा के अधिकार की सार्थकता पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को विफलता का आइना दिखाया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी भी योजना को बनाने से पहले पूरे परिदृश्य की समीक्षा की जानी चाहिए, नहीं तो वह शिक्षा के अधिकार की तरह ही सिर्फ जुबानी रह जाता है। किसी भी योजना या विचार को लागू करने से पहले उसके आर्थिक प्रभाव का मूल्यांकन करना बहुत जरूरी होता है। न्यायमूर्ति यूयू ललित की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए शिक्षा के अधिकार कानून का उदाहरण देते हुए यह कहा है कि यह अधिकार तो बनाया गया लेकिन इसकी पूर्ति के लिए स्कूल कहां है? नगर निगम और राज्य सरकारों को स्कूल की स्थापना के लिए कहा गया है लेकिन उन स्कूलों को चलाने में शिक्षकों और बजट की कमी सबसे बड़ी बाधा है। यह केंद्र के और राज्य सरकारों के लिए एक संदेश भी है कि उन्हें हर हाल में शिक्षा का बजट बढ़ाना चाहिए। प्राइमरी से लेकर उच्चशिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना होनी चाहिए। हर जगह आवश्यकताके अनुसार बड़े पैमाने पर शिक्षकों की भर्ती की जानी चाहिए। शिक्षा संसाधनों की कमी को दूर करने के लिए केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को मिल कर काम करने की जरूरत है। जब तक बड़े पैमाने पर विद्यालयों की स्थापना और शिक्षकों की नियुक्ति नहीं होगी तब तक शिक्षा के अधिकार को कभी पूरा नहीं किया जा सकता।