नई दिल्ली। पिछले दिनों जयपुर में आयोजित एक समारोह के दौरान न्यायालयीय प्रक्रिया और सर्वोच्च न्यायालय में पैरवी करने वाले वकीलों की फीस को लेकर अच्छी खासी चर्चा हुई जो मीडिया की शुक्रिया भी बनी। वहीं अगस्त में कार्य भार संभालने वाले नए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति यूयू ललित की ओर से अदालत में सुबह साढ़े नौ बजे सुनवाई आरम्भ करने की पहल पर भी वाद-विवाद का दौर जारी है।
सवाल यह है कि मुकदमों के इस अंबार को कम करने के लिए कोई ऐसी रणनीति बनानी होगी जिससे अदालतों का भार भी कम हो न्यायिक प्रक्रिया लंबी भी ना चले, लोगों को समय पर न्याय भी मिलें। पांच साल में ही देश में लंबित मुकदमों की संख्या चार करोड़ से बढ़कर आज सात करोड़ हो चुकी है। इसमें से एक प्रतिशत मामले सुप्रीम कोर्ट में है। हालांकि लोक अदालत के माध्यम से मुकदमों में कमी लाने की सार्थक पहल अवश्य की गई है परन्तु लोक- अदालतों में लाखों प्रकरणों के निबटने के बावजूद हालात में ज्यादा बदलाव नहीं आया है।
दरअसल लाखों की संख्या में इस तरह के मुकदमें हैं, जिन्हें निबटाने के लिए कोई सर्वमान्य समाधान खोजा जा सकता है। मुकदमों की प्रकृति के अनुसार उन्हें विभाजित किया जाय और फिर समयवद्ध कार्यक्रम बनाकर उन्हें निबटाने की कार्ययोजना बने तो समाधान कुछ हद तक संभव है। कुछ इस तरह के मुकदमें हैं, जिन्हें आसानी से निबटाने की कोई योजना बन जाय तो मुकदमों की संख्यामें कमी हो सकती है।
इनमें खास तौर से यातायात नियमों को तोड़ने वाले मुकदमों की ऑन लाईन निबटान की कोई व्यवस्था हो जाय तो अधिक कारगर हो सकती है। देश में सबसे ज्यादा मुकदमें रेवेन्यू से जुड़े हुए है। गांवों में जमीन के बंटवारें या सीमा निर्धारण को लेकर देश की निचली अदालतों में अंबार लगा हुआ है। इस तरह के मुकदमों के निबटारें में ग्राम पंचायत की कहीं कोई भूमिका तय हो तो शायद कोई स्थाई समाधान संभव हो सकता है।
इसी तरह से चेक बाउंस होने के लाखों की संख्या में मुकदमें हैं जिन्हें एक या दो सुनवाई में ही निस्तारित किया जा सकता है। इसी तरह से मामूली कहासुनी के मुकदमें जिसमें शांति भंग के प्रकरण शामिल है उन्हें भी तारीख-दर- तारीख के स्थान पर एक ही तारीख में निबटा दिया जाय तो हल संभव है। इसी तरह से राजनीतिक प्रदर्शनों को लेकर दर्ज होने वाले मुकदमों के निस्तारण की भी कोई कार्य योजना बन जाय तो उचित हो।
केंद्रीय कानून मंत्री किरन रिजूजू की माने तो इंग्लैण्ड में एक न्यायाधीश एक दिन में तीन से चार मामलों में निर्णय देते हैं जबकि हमारे देश में प्रत्येक न्यायाधीश औसतन प्रतिदिन 40 से 50 मामलों में सुनवाई करते हैं। अधिक काम करने के बावजूद मुकदमों की संख्या कम होने का नाम ही नहीं लेती।
चारों तरफ से निराश और हताश व्यक्ति न्याय के लिए न्याय का दरवाजा खटखटाता है। ऐसे में गैर-सरकारी संघटनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि वह लोगों में जागरुकता लाए और अदालत से बाहर निबटने वाले मामलों को बाहर ही निबटा लें। इसके लिए पूर्व न्यायाधीशों, पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों, वरिष्ठ वकीलों एवं गैर सरकारी संगठनों या सामाजिक कार्यकर्ताओं की टीम बनाई जा सकती है।