जीवन में दुःख का मूल्य कारण है ईश्वर का विस्मरण: दिव्य मोरारी बापू

राजस्थान/पुष्कर। परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा कि जीवन में दुःख का मूल्य कारण ईश्वर का विस्मरण है। विपदो नैव विपदः, सम्पदो नैव सम्पदः। विपद् विस्मरणं विष्णु,सम्पद्ना रायणस्मृतिः। विपत्ति का नाम विपत्ति नहीं है। संपत्ति का नाम संपत्ति नहीं है। भगवान के विस्मरण का नाम ही विपत्ति है और भगवान के सुमिरण का नाम ही संपत्ति है। ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी। यदि यह जीव ईश्वर के गुणों वाला है तो ईश्वर तो सच्चिदानंद स्वरूप है और जीव दुःख की अनुभूति करता रहता है ऐसा क्यों? संत जन इसके लिये कारण बताते हैं कि यह सब कुछ तभी बनता है जब जीव अपना स्वरूप भूलकर, माया बस हो जाता है। जैसे बरसात का जल जो आकाश से आता है वह बिल्कुल शुद्ध होता है। परंतु जैसे ही जमीन का स्पर्श पाता है गंदा हो जाता है। ठीक उसी तरह से चेतन-अमल और सुख राशि जीव जब जगत में आता है तो माया के प्रभाव में आकर अपने सहज रूप को भूल जाता है और दुःख की अनुभूति करने लगता है। भूमि परत भा ढ़ाबर पानी। जिमि जीवहिं माया लपटानी। सो माया बस भयउ गोसाँई। बध्यो कीर मरकट की नाई। माया क्या है? मैं अरु मोर तोर तै माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया। बरसात का पानी शुद्ध था, जमीन के संपर्क से गंदा हो गया। उसे पुनः शुद्ध किया जा सकता है। ठीक उसी तरह से जीव को भी माया मुक्त किया जा सकता है। जल के शुद्धिकरण के लिए जो प्रक्रिया करनी पड़ती है, उसे विज्ञान और जीव के शुद्धिकरण के लिए जो कुछ करना पड़ता है, उसे धर्म कहते हैं। जिस प्रकार विज्ञान के सिद्धांत सार्वभौमिक होतें हैं उसी प्रकार धर्म भी सार्वभौमिक सिद्धांत है। उसे किसी देश, जाति, वर्ग अथवा लिंग के लिए नहीं कहा जा सकता, वह तो मानव मात्र के लिए एक समान है। दुर्भाग्यवश हम लोग धर्म को संप्रदाय का पर्याय मान बैठे हैं। धर्म नदी के समान है, जबकि संप्रदाय उस नदी में स्नान करने के लिए बनाये हुए घाट के समान है। संप्रदाय चाहे जितने हो क्या परेशानी है? जैसे नदी के दोनों किनारों पर घाट हों तो और भी अच्छा होगा। लेकिन परेशानी तब खड़ी होगी, जब अपने-अपने घाट पर स्नानार्थीयों की भीड़ जुटाने की स्पर्धा होने लगेगी। शायद वह स्पर्धा यदि स्वस्थ स्पर्धा हो तो बढ़िया बात होगी, मतलब आप अपने घाट पर ज्यादा लोगों को आकर्षित करना चाहते हैं तो अच्छा रास्ता यह है कि आप अपने घाट को साफ-सुथरा और सुरक्षित रखिये। स्वाभाविक ही लोग आपकी तरफ खींचेंगे। मतलब अपने संप्रदाय को ऐसा पवित्र आदर्श वाला बनाईये कि लोगों की श्रद्धा आपके प्रति बने। दुःख के साथ कहना पड़ता है कि अपने ही घाट पर भीड़ जुटाने की शांत व्यवस्था के बदले हिंसक मार्ग हम लोग अपनाने लगते हैं। हमारे ही घाट पर लोग आवें इसके लिए दूसरे के घाट को खोदकर फेंक देने की मानसिकता से ग्रस्त हिंसक वृत्ति वाले बन जाते हैं। यह सोच काम करने लगती है कि जब दूसरे का घाट रहेगा ही नहीं तो सब लोग मेरे ही घाट पर आने लगेंगे। अर्थात् अपनी तपस्या, त्याग, सेवा को बढ़ाने के बजाय दूसरे का खंडन, उसके कमियों की ढ़ोल पीटना आदि करते रहते हैं। इसी से घर्षण होता है और उसे संप्रदाय का झगड़ा न कहकर धर्म की लड़ाई का नाम दे देते हैं। इन सब समस्याओं के समाधान के लिए संप्रदाय और धर्म के भेद को समझना होगा। संप्रदायें व्यक्तिगत मान्यता और आस्था का विषय है। जबकि धर्म तो मानव मात्र के लिए एक ही है। इसीलिए उसको मानव धर्म कहना ही उचित है। सभी हरि भक्तों के लिए पुष्कर आश्रम एवं नवनिर्माणाधीन गोवर्धन धाम आश्रम से साधू संतों की शुभ मंगल कामना-श्री दिव्य मोरारी बापू धाम सेवाट्रस्ट गनाहेड़ा पुष्कर जिला-अजमेर (राजस्थान)।

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