पुष्कर/राजस्थान। परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा कि जहां धर्म का शासन होता है, उस राष्ट्र में अतिवृष्टि या अनावृष्टि नहीं होती। उस राष्ट्र पर हमला करने वाला हमलावर विजयी नहीं हो सकता। भगवान राम के राज्य में जब तक व्यक्ति समाप्त होना न चाहे, तब तक वह जीवित रह सकता था। भगवान् कृष्ण के राज्य में एक घटना घटती है जो कि भगवान की लीला थी। एक ब्राह्मण का बालक मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तब ब्राह्मण उलाहना देता है कि आपके राज्य में हमारे पुत्रों की मृत्यु कैसे हुई और यह भगवान की लीला थी। केवल अर्जुन का अभिमान तोड़ने के लिये नवें पुत्र की मृत्यु पर अर्जुन वहीं बैठे थे। उन्होंने कहा प्रभु! आपने गुरु पुत्र ला कर दे दिया, अपने भाई ला कर दे दिये। ब्राह्मण का भी पुत्र ला दो। भगवान् ने कहा वह समय था, होना था, हो गया, अब नहीं हो पायेगा। अर्जुन ने ब्राह्मण से कहा कि जो आगे पैदा होगा मैं तुम्हारे उस पुत्र को मरने नहीं दूंगा। ब्राह्मण ने कहा- जब कृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध कुछ नहीं कर सके, तब तुम क्या कर सकोगे? बड़े अभिमान से अर्जुन ने कहा- मैं कृष्ण-बलराम नहीं हूं, मैं अनिरुद्ध-प्रद्युम्न नहीं हूं। मैं अर्जुन हूं, जिसके हाथ में गांडीव धनुष है,अर्थात् मैं उनसे भी श्रेष्ठ हूं। अहंकार का यह स्वभाव है कि वह सबसे ऊपर बैठता है। अहंकारी व्यक्ति अपने को सबसे बड़ा मानता है। अहंकार का यही दोष है। कहते हैं कि समुद्र से जो समुद्र का फेन होता है, बहुत हल्का होता है, पर समुद्र के ऊपर बैठता है। जल के ऊपर तैरता है, नीचे नहीं जाता। इसी तरह अहंकार भी व्यक्ति के ऊपर बैठता है और सामने वाले को अपने से छोटा समझता है। अर्जुन के इस अहंकार को ही प्रभु तोड़ना चाहते हैं। शास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि भगवान् अहंकार को पसंद नहीं करते। पापी से प्रभु उतनी घृणा नहीं करते, पापों को तो प्रभु उतना खतरनाक नहीं मानते, जितना अहंकार को मानते हैं। इसीलिए जहां किसी भक्त में अहंकार आया, प्रभु उसी समय उसे तोड़ देते हैं। अर्जुन के संरक्षण में दसवां पुत्र हुआ और वह शरीर सहित गायब हो गया। तब ब्राह्मण ने कहा- अर्जुन! तुम्हें धिक्कार है, तेरे धनुष को धिक्कार है। तू मिथ्यावादी है, तू ने प्रतिज्ञा की थी कि बालक को बचाऊंगा लेकिन नहीं बचा सका। मेरे बालक को लेकर आओ नहीं तो आग में जलकर मरो। अर्जुन दसों दिशाओं में गये लेकिन ब्राह्मण के पुत्र का कहीं पता नहीं चला। अंत में चिता बनाकर जब जलने के लिये तैयार हुये और भगवान् कृष्ण का स्मरण किया। श्री कृष्ण प्रगट हो गये। अर्जुन अभिवादन करते हैं। भगवान पूछते हैं, सुनाओ, क्या बात है? आग कैसे जलाई है? अर्जुन बोले प्रभु यह मेरे अभिमान का प्रयाश्चित है। जो कार्य आप नहीं कर सकते, वह मेरे द्वारा कैसे हो सकता है, लेकिन यह मेरा अज्ञान था कि मैंने अभिमान किया। अब आगे जब जन्म लूं तब मेरे अज्ञान न हो, ऐसी कृपा आप कर देना। प्रभु श्री कृष्ण ने कहा- अर्जुन! अब मालूम हो गया न कि अहंकार कितना खतरनाक होता है। चलो अब दसों बालकों को वापस लेकर आते हैं। रथ पर बैठकर आकाश में चले गये। माया की सीमा को पार करके नित्य बैकुंठ धाम पहुंचे। वहां ब्राह्मण के दसों बालक मिल जाते हैं। ब्राह्मण के दसों बालकों को लाकर जब अर्जुन ने ब्राह्मण को दिया, तब अर्जुन की प्रशंसा होने लगी। लेकिन अर्जुन ने कहा- यह मेरी प्रशंसा नहीं, यह प्रभु की प्रशंसा है, श्री कृष्ण की कृपा है, इनकी कृपा से ही यह सब हो सका है। जीव चाहे तो कुछ नहीं हो सकता, प्रभु चाहे तो सब कुछ हो सकता है। इसीलिये जीव को सदा ईश्वर के आश्रित रह कर कर्म करना चाहिये। सभी हरि भक्तों के लिए पुष्कर आश्रम एवं गोवर्धन धाम आश्रम से साधू संतों की शुभ मंगल कामना। श्री दिव्य घनश्याम धाम, श्री गोवर्धन धाम कालोनी, दानघाटी, बड़ी परिक्रमा मार्ग, गोवर्धन, जिला-मथुरा, (उत्तर-प्रदेश) श्री दिव्य मोरारी बापू धाम सेवाट्रस्ट गनाहेड़ा पुष्कर जिला-अजमेर (राजस्थान)।