यात्रा। असम की राजधानी दिसपुर से लगभग सात किमी दूर स्थित कामाख्या शक्तिपीठ नीलांचल पर्वत पर स्थित है। मां कामाख्या का पावन धाम तंत्र-मंत्र की साधना के लिए जाना जाता है। यह मंदिर हिंदू तीर्थयात्रियों के लिए एक प्रमुख स्थल है। इस सिद्धपीठ मंदिर पर हर किसी कामना पूरी होती है। इसीलिए इस मंदिर को कामाख्या कहा जाता है। यहां पर साधु, साधकों और अघोरियों का तांता लगा रहता है। नवरात्र में यहां बहुत भीड़ होती है।
योनि के रुप में की जाती है देवी सती की पूजा-
पौराणिक कथा के अनुसार माता सती के पिता राजा दक्ष यज्ञ कर रहे थे, लेकिन उन्होंने सती और शिव को इसके लिए नहीं बुलाया था। जिसकी वजह से सती उदास हो जाती है, और फिर भी अपने पिता के घर चली जाती हैं। जब वह वहां पहुंचती है तो उनके पिता भगवान शिव की बेइज्जती करने लगते हैं, जिसे सती बर्दाश्त नहीं कर पाती और फिर वह यज्ञ की आग में कूद जाती है। इस बात की खबर जब शिव को लगती है तो वह गुस्से में आ जाते हैं। फिर सती के जलते शरीर को हाथों में लेकर शिव तांडव करने लगते हैं। ऐसा देख संसार को विनाश से बचाने के लिए भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े कर देते हैं ताकि शिव का सती से शरीर से मोह भंग हो जाय। ऐसे में सती के शरीर के टूकड़े अलग-अलग जगहों पर गिरते हैं जो आज शक्ति पीठ के नाम से जाने जाते हैं। कामाख्या देवी मंदिर में सती की योनि गिरी थी। इस तीर्थस्थल पर देवी सती की पूजा योनि के रुप में की जाती है। यहां पर सिर्फ एक योनि के आकार का शिलाखंड है।
दिया जाता है अनोखा प्रसाद-
यहां पर सितंबर-अक्टूबर में आने वाली नवरात्रि के दौरान दूर्गा पूजा होती है। हर महीने ये मंदिर तीन दिनों के लिए बंद रहता है। ऐसी मान्यता है कि इन तीन दिन में देवी के पीरियड्स आते हैं।माता के तीन दिन मासिक धर्म के चलते मंदिर में सफेद कपड़ा रखा जाता है। और तीन दिन बाद जब दरबार खुलता है तो पूरा कपड़ा लाल रंग में भींगा होता है। इस कपड़े को प्रसाद के रूप में भक्तों को दिया जाता है. माता सती का मासिक धर्म वाला कपड़ा बहुत पवित्र माना जाता है। इस कपड़े को अम्बूवाची कपड़ा कहा जाता है।
कामाख्या मंदिर का इतिहास-
51 शक्तिपीठों में शुमार कामाख्या मंदिर सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। इसका निर्माण आठवीं और नौवीं शताब्दी के बीच हुआ था। 16वीं सदी में इस मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। कुछ सालों बाद बिहार के राजा नारायण नरसिंह द्वारा 17वीं सदी में इस मंदिर का पुन: निर्माण कराया गया। कामाख्या मंदिर तीन हिस्सों में बना है। पहला हिस्सा सबसे बड़ा है। दूसरे हिस्से में माता के दर्शन होते हैं, जहां एक पत्थर से हर समय पानी बहता रहता है। हर साल यहां पर अम्बूवाची मेला लगता है। इस दौरान पास में स्थित ब्रह्मपुत्र का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है। मान्यता है कि यह लाल रंग कामाख्या देवी के मासिक धर्म के कारण होता है।
भैरव के दर्शन करना अनिवार्य-
कामाख्या मंदिर से कुछ दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर है। उमानंद भैरव ही इस शक्तिपीठ के भैरव हैं। यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में टापू पर स्थित है। यहां की मान्यता है कि इनके दर्शन के बिना मां कामाख्या देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यहीं पर समाधिस्थ भगवान शिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि जाग्रत होने पर शिव ने अपने तीसरे नेत्र से उन्हें भस्म किया था। भगवती के महातीर्थ नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुनः जीवनदान मिला था, इसलिए ये इलाका कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।