नई दिल्ली। ‘नमामि गंगे परियोजना‘ की शुरुआत में साल 2011 तक गंगा को स्वच्छ करने का किया गया दावा अभी तक कोई सकारात्मक परिणाम नहीं ला पाई है। इस परियोजना पर अरबों रुपए खर्च किए जाने के बावजूद गंगा में प्रदूषण का ग्राफ गिरने के बजाय बढ़ना अत्यन्त चिन्ताजनक है। आने वाले समय में यह परियोजना अपने लक्ष्य तक पहुंच पाएगी, इसकी संभावना भी नहीं दिख रही है।
इसके कारणों पर विचार करें तो प्रथम दृष्टया इस परियोजना से जुड़े अधिकारियों की शिथिलता ही परिलक्षित होती है, क्योंकि इस मोक्षदायिनी नदी में अब भी 60 प्रतिशत सीवेज गिराया जा रहा है। आज स्थिति यह है कि आस्था का प्रतीक गंगा का पानी 97 स्थानों पर आचमन के लायक भी नहीं है।
देश में पांच राज्यों उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में दस हजार से अधिक एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) सीवेज निकलता है, जिसमें से लगभग चार हजार एमएलडी करीब 40 फीसदी ही ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट से होकर गुजरता है, बाकी 60 फीसदी को सीधे गंगा में गिराया जाता है।
इन पांच प्रमुख राज्यों में कुल 245 सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट (एसटीपी) हैं, जिसमें 226 ही ठीक है लेकिन वह भी अपनी क्षमता से कम काम कर रहे हैं। कर्तव्य के प्रति उदासीनता के मामले में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) भी कटघरे में है जो 136 एसटीपी की निगरानी करता है। इसमें 105 ही काम कर रहे हैं, जिनमें 96 एसटीपी नियम और मानकों को पूरा नहीं कर रहे हैं।
इसके लिए सीपीसीबी की जवाबदेही तय होनी चाहिए। सिर्फ पानी की तरह पैसा बहाने से गंगा का पानी शुद्ध नहीं होगा। परियोजना पर निगरानी रखने वालों की भी निगरानी जरूरी है। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार के साथ जनता का भी सहयोग अपेक्षित है। इसे जन- आन्दोलन चलाकर जागरूक किए जाने की जरूरत है। साथ ही तटीय क्षेत्रों में लगाए गए कल-कारखानों के मलबे को गंगा में गिरने से रोकने के लिए सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है तभी ‘नमामि गंगे परियोजना‘ का उद्देश्य सफल होगा।