नई दिल्ली। ऐसे तो हर जगह की ही कुछ चीजे खुद में खास होती है। लेकिन बनारस की बात ही अलग है। यदि आप बनारस अगर जाएं और बनारसी पान नहीं खाएं तो फिर यात्रा अधूरी सी लगती है। वैसे ये पान जीभ पर आने के बाद अपनी नफासत और लजीज जायके का वो अंदाज दिखाता है कि आनंद ही आ जाता है। ठीक उसी तरह बनारस के इसी जायके को लंगड़ा आम और भी आगे बढ़ाता है। काशी की शान में चार चांद लगाने वाली ये दोनों चीजें इस साल जीआई टैग में शामिल की गई हैं।
वैसे तो जीआई टैग में बनारस की कई चीजें पहले से शामिल हैं, जिसमें उनकी बनारसी साड़ी, लकड़ी के खास खिलौने, गुलाबी मीनाकारी समेत कुल मिलाकर 22 सामान हैं। ये काशी क्षेत्र में बनारस, चुनार, मिर्जापुर और गाजीपुर से जुडे़ हुए हैं।
GI टैग
GI टैग मतलब जियोग्राफिकल इंडिकेशंस टैग। भारतीय संसद ने 1999 में रजिस्ट्रेशन एंड प्रोटेक्शन एक्ट के तहत ‘जियोग्राफिकल इंडिकेशंस ऑफ गुड्स’ लागू किया था। इस आधार पर भारत के किसी भी क्षेत्र में पाए जाने वाली विशिष्ट वस्तु का कानूनी अधिकार उस राज्य को दे दिया जाता है। बनारसी साड़ी, मैसूर सिल्क, कोल्हापुरी चप्पल, दार्जिलिंग चाय इसी कानून के तहत संरक्षित हैं। नाम से पता चलता है कि जियोग्राफिकल इंडिकेशंस टैग्स का काम उस खास भौगोलिक परिस्थिति में पाई जाने वाली वस्तुओं के दूसरे स्थानों पर गैर-कानूनी प्रयोग को रोकना है।
किसको मिलता है
किसी भी वस्तु को GI टैग देने से पहले उसकी गुणवत्ता, क्वालिटी और पैदावार की अच्छे से जांच की जाती है कि उस खास वस्तु की सबसे अधिक और ओरिगिनल पैदावार निर्धारित राज्य की ही है। इसके साथ ही यह भी तय किए जाना जरूरी होता है कि भौगोलिक स्थिति का उस वस्तु की पैदावार में कितना हाथ है। कई बार किसी खास वस्तु की पैदावार एक विशेष स्थान पर ही संभव होती है। इसके लिए वहां की जलवायु से लेकर उसे आखिरी स्वरूप देने वाले कारीगरों तक का हाथ होता है। भारत में GI टैग्स किसी खास फसल, प्राकृतिक और मानव निर्मित सामानों को दिया जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि एक से अधिक राज्यों में बराबर रूप से पाई जाने वाली फसल या किसी प्राकृतिक वस्तु को उन सभी राज्यों का मिला-जुला GI टैग दिया जाए। यह बासमती चावल के साथ हुआ है। बासमती चावल पर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों का अधिकार है।
कब तक मान्य होता है GI टैग
GI के अधिकार प्राप्त करने के लिए चेन्नई स्थित GI-डेटाबेस में अप्लाई करना पड़ता है। इसके अधिकार व्यक्तियों, उत्पादकों और संस्थाओं को दिए जा सकते हैं एक बार रजिस्ट्री हो जाने के बाद 10 सालों तक यह GI टैग मान्य होते हैं, जिसके बाद इन्हें फिर रिन्यू करवाना पड़ता है। पहला GI टैग साल 2004 में दार्जिलिंग चाय को दिया गया था।
भारत में अभी तक 433 वस्तुओं को GI टैग दिया गया है। ये लिस्ट हर दो वर्ष में अपडेट की जाती है। इनमें उत्तराखंड की तेजपात, सोलापुर के अनार और कश्मीर की हाथ से बुनी गई कारपेट शामिल है। कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जिसके पास सबसे अधिक 40 वस्तुओं के GI अधिकार हैं। यूपी के पास अब तक कुछ 31 टैग हैं, जिसमें 22 के आसपास तो काशी क्षेत्र के पास ही हैं। वहीं पश्चिम बंगाल में बनने वाले रसगुल्लों को अन्य प्रदेशों के रसगुल्लों से नरम और स्वादिष्ट मानते हुए रसगुल्लों का GI अधिकार दिया गया।
GI टैग्स के फायदे
GI टैग मिलने के बाद अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में उस वस्तु की कीमत और उसका महत्व बढ़ जाता है। जिससे इसका एक्सपोर्ट बढ़ जाता है। साथ ही देश-विदेश से लोग एक खास जगह पर उस विशिष्ट सामान को खरीदने आते हैं। इस कारण टूरिज्म भी बढ़ता है। किसी भी राज्य में ये विशिष्ट वस्तुएं उगाने या बनाने वाले किसान और कारीगर गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं। GI टैग मिल जाने से बढ़ी हुई एक्सपोर्ट और टूरिज्म की संभावनाएं इन किसानों और कारीगरों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाती हैं।
पेटेंट क्या है
पेटेंट अर्थ है किसी व्यक्ति द्वारा खोजे, बनाए या पैदा किए गए किसी खास उत्पाद के उपयोग, प्रयोग और उत्पादन के कानूनी अधिकार। आईपीआर के अंतरगत तीन कैटेगरीज में पेटेंट के लिए अप्लाई किया जा सकता है।
यूटिलिटी पेटेंट
यह सबसे आम किस्म का पेटेंट होता है। जब आप कोई नया सॉफ्टवेयर, दवाई, केमिकल या किसी भी तरह से उपयोग की जाने वाली वस्तु बनाते हैं, ये यूटिलिटी पेटेंट के अंतर्गत आता है।
प्लांट पेटेंट
किसी खास किस्म का पौधा उगाना, चाहे वो फसल के लिए हो या हाइब्रिड पौधा हो, उसके उत्पादन के कानूनी अधिकारों के लिए प्लांट पेटेंट दिया जाता है।
डिजाईन पेटेंट
यह घर कार या किसी अन्य वस्तु की, डिजाईन को कानूनी रूप से प्रयोग करने के लिए डिजाईन पेटेंट दिया जाता है।
GI टैग्स भी आईपीआर का हिस्सा हैं जो पेटेंट्स से मिलते-जुलते ही हैं। जहां GI टैग किसी भौगोलिक परिस्थिति के आधार पर दिए जाते हैं, पेटेंट नई खोज और आविष्कारों को बचाए रखने का जरिया हैं।